Morning Assembly Programme
Short Moral Stories in Hindi
प्रेरक प्रसंग एवं लघु कहानियां
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एक अध्यापक अपने शिष्यों के साथ घूमने जा रहे थे । रास्ते में वे अपने शिष्यों के अच्छी संगत की महिमा समझा रहे थे । लेकिन शिष्य इसे समझ नहीं पा रहे थे । तभी अध्यापक ने फूलों से भरा एक गुलाब का पौधा देखा । उन्होंने एक शिष्य को उस पौधे के नीचे से तत्काल एक मिट्टी का ढेला उठाकर ले आने को कहा ।
जब शिष्य ढेला उठा लाया तो अध्यापक बोले – “ इसे अब सूंघो"
शिष्य ने ढेला सूंघा और बोला – “ गुरु जी इसमें से तो गुलाब की बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है ।”
तब अध्यापक बोले – “ बच्चो ! जानते हो इस मिट्टी में यह मनमोहक महक कैसे आई ? दरअसल इस मिट्टी पर गुलाब के फूल, टूट टूटकर गिरते रहते हैं, तो मिट्टी में भी गुलाब की महक आने लगी है जो की ये असर संगत का है और जिस प्रकार गुलाब की पंखुड़ियों की संगति के कारण इस मिट्टी में से गुलाब की महक आने लगी उसी प्रकार जो व्यक्ति जैसी संगत में रहता है उसमें वैसे ही गुणदोष आ जाते हैं ।
सीख : हमें सदैव अपनी संगत अच्छी रखनी चाहिए ।
एक समय की बात है । एक नदी में एक महात्मा स्नान कर रहे थे । तभी एक बिच्छू जो पानी में डूब रहा था, उसे बचाते हुए बिच्छु ने महात्मा को डंक मार दिया ।महात्मा ने उसे कई बार बचाने की कोशिश की । बिच्छू ने उन्हें बार – बार डंक मारा । अंतत: महात्मा ने उसे बचाकर नदी के किनारे रख दिया । थोड़ी दूर खड़े यह सब महात्मा के शिष्य देख रहे थे । जैसे ही वे नदी से बाहर आये तो शिष्यों ने पूछा कि जब वह बिच्छू आपको बार – बार डंक मार रहा था तो आपको उसे बचाने की क्या आवश्यकता थी ।तब महात्मा ने कहा – बिच्छू एक छोटा जीव है, उसका कर्म काटना है, जब वह अपना कर्तव्य नहीं भूला, तो मैं मनुष्य हूँ मेरा कर्तव्य दया करना है तो मैं अपना कर्तव्य कैसे भूल सकता हूँ ।
सीख : मार्ग कितना भी कठिन क्यों न हों । मनुष्य को कभी अपना कर्तव्य नहीं भूलना चाहिए ।
तब महात्मा ने कहा – बिच्छू एक छोटा जीव है, उसका कर्म काटना है, जब वह अपना कर्तव्य नहीं भूला, तो मैं मनुष्य हूँ मेरा कर्तव्य दया करना है तो मैं अपना कर्तव्य कैसे भूल सकता हूँ ।
सीख : मार्ग कितना भी कठिन क्यों न हों । मनुष्य को कभी अपना कर्तव्य नहीं भूलना चाहिए ।
स्वामी विवेकानंदजी जी को बचपन में सब लोग बिले नाम से पुकारते थे। बाद में नरेन्द्रनाथ दत्त कहलाये। नरेन्द्रनाथ बहुत उत्साही और तेजस्वी बालक थे। इस बालक को बचपन से ही संगीत, खेलकूद और मैदानी गतिविधियों में रुचि थी। नरेन्द्रनाथ बचपन से ही अध्यात्मिक प्रकृति के थे और यह खेल – खेल में राम, सीता, शिव आदि मूर्तियों की पूजा करने में रम जाते थे। इनकी माँ इन्हें हमेशा रामायण व महाभारत की कहानियां सुनाती थी जिसे नरेन्द्रनाथ खूब चाव से सुनते थे।
एक बार बनारस में स्वामी विवेकानंद जी माँ दुर्गा जी के मंदिर से निकल रहे थे कि तभी वहां पहले से मौजूद बहुत सारे बंदरों ने उन्हें घेर लिया। वे उनसे प्रसाद छिनने के लिए उनके नजदीक आने लगे। अपने तरफ आते देख कर स्वामी स्वामी जी बहुत भयभीत हो गए। खुद को बचाने के लिए भागने लगे। पर वे बंदर तो पीछा छोड़ने को तैयार ही नहीं थे।
पास में खड़ा एक वृद्ध संयासी ये सब देख रहा था, उन्होंने स्वामी जी को रोका और कहा – रुको ! डरो मत, उनका सामना करो और देखों कि क्या होता है। बृद्ध संयासी की बात सुनकर स्वामी जी में हिम्मत आ गई और तुरंत पलटे और बंदरों की तरफ बढ़ने लगे। तब उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उनके सामना करने पर सभी बंदर भाग खड़े हुए थे। इस सलाह के लिए स्वामी जी ने बृद्ध संयासी को बहुत धन्यवाद दिया।
इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर शिक्षा मिली और कई सालों बाद उन्होंने एक सभा में इस घटना का जिक्र किया और कहा – यदि तुम कभी किसी चीज से भयभीत हो, तो उससे भागों मत, पलटो और सामना करों। वास्तव में, यदि हम अपने जीवन में आये समस्याओं का सामना करे तो यकीन मानिए बहुत सी समस्याओं का समाधान हो जायेगा।
सीख : , यदि हम अपने जीवन में आये समस्याओं का सामना करे तो यकीन मानिए बहुत सी समस्याओं का समाधान हो जायेगा
किसी शहर में, एक आदमी प्राइवेट कंपनी में जॉब करता था। वो अपनी ज़िन्दगी से खुश नहीं था, हर समय वो किसी न किसी समस्या से परेशान रहता था। एक बार शहर से कुछ दूरी पर एक महात्मा का काफिला रुका । शहर में चारों और उन्ही की चर्चा थी। बहुत से लोग अपनी समस्याएं लेकर उनके पास पहुँचने लगे, उस आदमी ने भी महात्मा के दर्शन करने का निश्चय किया।
छुट्टी के दिन सुबह-सुबह ही उनके काफिले तक पहुंचा । बहुत इंतज़ार के बाद उसका का नंबर आया।
वह बाबा से बोला- “बाबा , मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूँ, हर समय समस्याएं मुझे घेरी रहती हैं, कभी ऑफिस की टेंशन रहती है, तो कभी घर पर अनबन हो जाती है, और कभी अपने सेहत को लेकर परेशान रहता हूँ …।”
बाबा कोई ऐसा उपाय बताइये कि मेरे जीवन से सभी समस्याएं ख़त्म हो जाएं और मैं चैन से जी सकूँ ?
बाबा मुस्कुराये और बोले – “पुत्र, आज बहुत देर हो गयी है मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर कल सुबह दूंगा … लेकिन क्या तुम मेरा एक छोटा सा काम करोगे …?”
“हमारे काफिले में सौ ऊंट हैं, मैं चाहता हूँ कि आज रात तुम इनका खयाल रखो …जब सौ के सौ ऊंट बैठ जाएं तो तुम भी सो जाना …” ऐसा कहते हुए महात्मा अपने तम्बू में चले गए ।
अगली सुबह महात्मा उस आदमी से मिले और पुछा – ” कहो बेटा, नींद अच्छी आई।”
वो दुखी होते हुए बोला – “कहाँ बाबा, मैं तो एक पल भी नहीं सो पाया। मैंने बहुत कोशिश की पर मैं सभी ऊंटों को नहीं बैठा पाया, कोई न कोई ऊंट खड़ा हो ही जाता “
बाबा बोले – “बेटा, कल रात तुमने अनुभव किया कि चाहे कितनी भी कोशिश कर लो सारे ऊंट एक साथ नहीं बैठ सकते, तुम एक को बैठाओगे तो कहीं और कोई दूसरा खड़ा हो जाएगा। इसी तरह तुम एक समस्या का समाधान करोगे तो किसी कारणवश दूसरी खड़ी हो जाएगी ” पुत्र जब तक जीवन है ये समस्याएं तो बनी ही रहती हैं … कभी कम तो कभी ज्यादा …।”
“तो हमें क्या करना चाहिए ?” – आदमी ने जिज्ञासावश पुछा।
“इन समस्याओं के बावजूद जीवन का आनंद लेना सीखो”
कल रात क्या हुआ ? :
1) कई ऊंट रात होते -होते खुद ही बैठ गए,
2) कई तुमने अपने प्रयास से बैठा दिए,
3) बहुत से ऊंट तुम्हारे प्रयास के बाद भी नहीं बैठे … और बाद में तुमने पाया कि उनमे से कुछ खुद ही बैठ गए …।
कुछ समझे? समस्याएं भी ऐसी ही होती हैं।।
1) कुछ तो अपने आप ही ख़त्म हो जाती हैं ,
2) कुछ को तुम अपने प्रयास से हल कर लेते हो
3) कुछ तुम्हारे बहुत कोशिश करने पर भी हल नहीं होतीं ,
ऐसी समस्याओं को समय पर छोड़ दो, उचित समय पर वे खुद ही ख़त्म हो जाती हैं।
जीवन है, तो कुछ समस्याएं रहेंगी ही रहेंगी, पर इसका ये मतलब नहीं की तुम दिन रात उन्ही के बारे में सोचते रहो …
समस्याओं को एक तरफ रखो और जीवन का आनंद लो, चैन की नींद सो, जब उनका समय आएगा वो खुद ही हल हो जाएँगी”
सीख : बिंदास मुस्कुराओ क्या ग़म है ,
ज़िन्दगी में टेंशन किसको कम है ।।
अच्छा या बुरा तो केवल भ्रम है,
जिन्दगी का नाम ही,
कभी ख़ुशी कभी ग़म है।
एक बार एक किसान परमात्मा से बड़ा नाराज हो गया। कभी बाढ़ आ जाये, कभी सूखा पड़ जाए, कभी धूप बहुत तेज हो जाए तो कभी ओले पड़ जाये। हर बार कुछ ना कुछ कारण से उसकी फसल थोड़ी ख़राब हो जाये। एक दिन बड़ा तंग आ कर उसने परमात्मा से कहा – देखिये प्रभु,आप परमात्मा हैं, लेकिन लगता है आपको खेती बाड़ी की ज्यादा जानकारी नहीं है, एक प्रार्थना है कि एक साल मुझे मौका दीजिये, जैसा मैं चाहूँ वैसा मौसम हो, फिर आप देखना मै कैसे अन्न के भण्डार भर दूंगा। परमात्मा मुस्कुराये और कहा – ठीक है, जैसा तुम कहोगे वैसा ही मौसम दूंगा, मै दखल नहीं करूँगा।
अब, किसान ने गेहूं की फ़सल बोई, जब धूप चाही, तब धूप मिली, जब पानी चाही तब पानी। तेज धूप, ओले, बाढ़, आंधी तो उसने आने ही नहीं दी, समय के साथ फसल बढ़ी और किसान की ख़ुशी भी, क्योंकि ऐसी फसल तो आज तक नहीं हुई थी। किसान ने मन ही मन सोचा अब पता चलेगा परमात्मा को की फसल कैसे करते हैं, बेकार ही इतने बरस हम किसानो को परेशान करते रहे।
फ़सल काटने का समय भी आया, किसान बड़े गर्व से फ़सल काटने गया, लेकिन जैसे ही फसल काटने लगा ,एकदम से छाती पर हाथ रख कर बैठ गया! गेहूं की एक भी बाली के अन्दर गेहूं नहीं था, सारी बालियाँ अन्दर से खाली थी, बड़ा दुखी होकर उसने परमात्मा से कहा – प्रभु ये क्या हुआ ?
तब परमात्मा बोले – ”ये तो होना ही था , तुमने पौधों को संघर्ष का ज़रा सा भी मौका नहीं दिया। ना तेज धूप में उनको तपने दिया, ना आंधी ओलों से जूझने दिया, उनको किसी प्रकार की चुनौती का अहसास जरा भी नहीं होने दिया, इसीलिए सब पौधे खोखले रह गए। जब आंधी आती है, तेज बारिश होती है ओले गिरते हैं तब पौधा अपने बल से ही खड़ा रहता है, वो अपना अस्तित्व बचाने का संघर्ष करता है और इस संघर्ष से जो बल पैदा होता है वो ही उसे शक्ति देता है, उर्जा देता है, उसकी जीवटता को उभारता है। सोने को भी कुंदन बनने के लिए आग में तपने, हथौड़ी से पिटने,गलने जैसी चुनोतियो से गुजरना पड़ता है तभी उसकी स्वर्णिम आभा उभरती है,उसे अनमोल बनाती है। ”
इसी तरह जिंदगी में भी अगर संघर्ष ना हो, चुनौती ना हो तो आदमी खोखला ही रह जाता है, उसके अन्दर कोई गुण नहीं आ पाता। ये चुनौतियां ही हैं जो आदमी रूपी तलवार को धार देती हैं, उसे सशक्त और प्रखर बनाती हैं, अगर प्रतिभाशाली बनना है तो चुनौतियां तो स्वीकार करनी ही पड़ेंगी, अन्यथा हम खोखले ही रह जायेंगे। अगर जिंदगी में प्रखर बनना है, प्रतिभाशाली बनना है, तो संघर्ष और चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ेगा।
सीख : अगर जिंदगी में प्रखर बनना है, प्रतिभाशाली बनना है, तो संघर्ष और चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ेगा।
नाव गंगा के इस पार खड़ी है। यात्रियों से लगभग भर चुकी है। रामनगर के लिए खुलने ही वाली है, बस एक-दो सवारी चाहिए। उसी की बगल में एक नवयुवक खड़ा है। नाविक उसे पहचानता है। बोलता है - 'आ जाओ, खड़े क्यों हो, क्या रामनगर नहीं जाना है?' नवयुवक ने कहा, 'जाना है, लेकिन आज मैं तुम्हारी नाव से नहीं जा सकता।?' क्यों भैया, रोज तो इसी नाव से आते-जाते हो, आज क्या बात हो गयी? आज मेरे पास उतराई देने के लिए पैसे नहीं हैं। तुम जाओ। अरे! यह भी कोई बात हुई। आज नहीं, तो कल दे देना। नवयुवक ने सोचा, बड़ी मुश्किल से तो माँ मेरी पढ़ाई का खर्च जुटाती हैं। कल भी यदि पैसे का प्रबन्ध नहीं हुआ, तो कहाँ से दूँगा? उसने नाविक से कहा, तुम ले जाओ नौका, मैं नहीं जाने वाला। वह अपनी किताब कापियाँ एक हाथ में ऊपर उठा लेता है और छपाक नदी में कूद जाता है। नाविक देखता ही रह गया। मुख से निकला- अजीब मनमौजी लड़का है।
छप-छप करते नवयुवक गंगा नदी पार कर जाता है। रामनगर के तट पर अपनी किताबें रखकर कपड़े निचोड़ता है। भींगे कपड़े पहनकर वह घर पहुँचता है। माँ रामदुलारी इस हालत में अपने बेटे को देखकर चिंतित हो उठी।
अरे! तुम्हारे कपड़े तो भीगें हैं? जल्दी उतारो।
नवयुवक ने सारी बात बतलाते हुए कहा, तुम्ही बोलो माँ, अपनी मजबूरी मल्लाह को क्यों बतलाता? फिर वह बेचारा तो खुद गरीब आदमी है। उसकी नाव पर बिना उतराई दिए बैठना कहाँ तक उचित था? यही सोचकर मैं नाव पर नहीं चढ़ा। गंगा पार करके आया हूँ। माँ रामदुलारी ने अपने पुत्र को सीने से लगाते हुए कहा, 'बेटा, तू जरूर एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।' वह नवयुवक अन्य कोई नहीं लाल बहादुर शास्त्री थे, जो देश के प्रधानमंत्री बने और 18 महीनों में ही राष्ट्र को प्रगति की राह दिखायी।
भौतिक विज्ञान के विकास में जिन वैज्ञानिकों का महत्वपूर्ण योगदान है उसमें आइजक न्यूटन का अप्रितम योगदान है। वे कहा करते - 'कठिनाइयों से गुजरे बिना कोई अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता। जिस उद्देश्य का मार्ग कठिनाइयों के बीच नहीं जाता, उसकी उच्चता में सन्देह करना चाहिए।'
वे प्रकाश के सिद्धांतों की खोज में बीस वर्षों से लगे थे। अनेक शोधपत्र तैयार किए गए थे। वे मेज पर पड़े थे, वहीं लैम्प जल रहा था, उनका कुत्ता डायमड उछला और मेज पर चढ़ गया। लैम्प पलट गया। मेज पर आग लग गई। देखते-देखते बीस वर्षों की कठिन तपस्या से तैयार शोधपत्र जलकर खाक हो गए। न्यूटन जब टहलकर आए, तो इस दृश्य को देखकर उन्हें अपार कष्ट हुआ। एक क्षण तो इतने उद्विग्न हुए कि डायमंड को मार कर खत्म करने की बात भी सोचने लगे, लेकिन न्यूटन ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने डायमंड को पास बुलाया, उसकी पीठ पर हाथ रखा, सिर थपथपाते हुए कहा, 'ओ डायमंड! डायमंड! जो नुकसान तूने पहुँचाया है, तू नहीं जानता।'
उन्होंने धैयपूर्वक सारे शोधपत्र की सामग्री को अपनी स्मृति में खोजा और फिर उसी उत्साह से नया शोधपत्र तैयार करने में जुट गए।
एक जिज्ञासु शिष्य ने टॉल्स्टाय से पूछा, 'जीवन क्या है?'
टॉल्स्टाय ने कहा, एक बार एक यात्री जंगल की राह पर चला जा रहा था। सामने से एक हाथी उसकी ओर लपका। अपने प्राण बचाने के लिए तत्काल वह एक कुएँ में कूद गया। कुँए में वटवृक्ष था। उसकी एक शाखा को पकड़कर वह झूल गया। उसने नीचे देखा साक्षात् मौत खड़ी थी। एक मगरमच्छ मुँह खोले बैठा था। भय कंपित वह मृत्यु का साक्षात् दर्शन कर रहा था। उसने ऊपर देखा-शहद के छत्ते से बूँद-बूँद मधु टपक रहा था। वह सब कुछ भूल मधु पीने में तल्लीन हो गया,
लेकिन यह क्या? जिस पेड़ से वह लटका था, उसकी जड़ को दो चूहे कुतर रहे थे- एक उजला था, दूसरा काला। जिज्ञासु ने पूछा, 'इसका अर्थ?' 'तू नहीं समझा' टॉल्स्टाय ने कहा, 'वह हाथी काल था, मगर मृत्यु, मधु जीवन-रस था और दो चूहे दिन-रात। बस यही तो जीवन है। शिष्य सन्तुष्ट हो गया।'
यह एक पोलियोग्रस्त बालिका की कहानी है। चार साल की उम्र में निमोनिया और काला ज्वर की शिकार हो गयी। फलतः पैरों में लकवा मार गया। डॉक्टरों ने कहा विल्मा रूडोल्फ अब चल न सकेगी। विल्मा का जन्म टेनेसस के एक दरिद्र परिवार में हुआ था, लेकिन उसकी माँ विचारों की धनी थी। उसने ढाँढस बँधाया, 'नहीं विल्मा तुम भी चल सकती हो, यदि चाहो तो!' विल्मा की इच्छा-शक्ति जाग्रत हुई। उसने डॉक्टरों को चुनौती दी, क्योंकि माँ ने कहा था यदि आदमी को ईश्वर में दृढ़ विश्वास के साथ मेहनत और लगन हो, वह दुनियाँ में कुछ भी कर सकता है।
नौ साल की उम्र में वह उठ बैठी। 13 साल की उम्र में पहली बार एक दौड़ प्रतियोगिता में शामिल हुई, लेकिन हार गयी। फिर लगातार तीन प्रतियोगिताओं में हारी, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। 15 साल की उम्र में टेनेसी स्टेट यूनिवर्सिटी में गई और वहाँ एड टेम्पल नामक कोच से मिलकर कहा, 'आप मेरी क्या मदद करेंगे, मैं दुनियाँ की सबसे तेज धाविका बनना चाहती हूँ।' कोच टेम्पल ने कहा, 'तुम्हारी इस इच्छा शक्ति के सामने कोई बाधा टिक नहीं सकती, मैं तुम्हारी मदद करूँगा।'
1960 की विश्व-प्रतियोगिता ओलम्पिक में वह भाग लेने आयी। उसका मुकाबला विश्व की सबसे तेज धाविका जुत्ता हैन से हुआ। कोई सोच नहीं सकता था कि एक अपंग बालिका वायु वेग से दौड़ सकती है। वह दौड़ी और एक, दो, तीन प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान प्राप्त कर 100 मीटर, 200 मीटर तथा 400 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीता।
उसने प्रमाणित कर दिया कि एक अपंग व्यक्ति दृढ़ इच्छा शक्ति से सब कुछ कर सकता है। हर सफलता की राह कठिनाइयों के बीच से गुजरती है।
गुरूदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर शान्ति निकेतन के अपने एकान्त कमरे में कविता लिखने में तल्लीन थे। तभी नीरवता को बेधती हुई एक आवाज आई - 'रूको' आज तुम्हें खत्म ही कर देता हूँ? रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने दृष्टि उठाई। देखा एक डकैत चाकू लिए हुए उन पर वार करने के लिए प्रस्तुत है। वे कविता लिखने में पुनः तल्लीन हो गए और धीरे से कहा - 'मुझे मारना चाहते हो, ठीक है मारना, लेकिन एक बहुत ही सुन्दर भाव आ गया है, कविता पूरी कर लेने दो।' भाव में इतने डूबे कि उन्हें याद ही नहीं कि उनका हत्यारा इतना निकट है।
इधर हत्यारे ने सोचा - ये कैसा आदमी है ? मैं चाकू लिए खड़ा हूँ। उस पर कोई असर नहीं। गुरूदेव की कविता जब समाप्त हुई उन्होंने दरवाजे की ओर दृष्टि डाली मानों कह रहे हों - अब मैं खुशी से मर सकता हूँ, लेकिन यह क्या ? हत्यारे ने चाकू बाहर फेंक दिया और उनके चरणों में बैठकर रोने लगा।
अमेरीका के एक जंगल में एक नवयुवक दिन में लकड़ियाँ काटता था। वह पढ़ना चाहता था, लेकिन गरीब था। नजदीक में कोई विद्यालय नहीं था। अन्ततः उसने अपने से ही पढ़ने का निश्चय किया। पुस्तकालय भी दस मील दूर था। उसने निश्चय किया कि वह पुस्तकालय से किताबें लाकर पढ़ेगा। वह अपने काम से छुट्टी पाकर दस मील दूर जाकर किताबें लाता, लकड़ी जलाकर पढ़ता और समय से पूर्व किताबें लौटा देता। पढ़-लिखकर अंततः वह वकील बना। उसने स्थानीय अदालत में वकालत शुरू की, लेकिन वकिल के रूपा में भी वह अपने को सही स्वरूप मे नहीं रख पाता। उसके पास पैसे नहीं थे, कपड़ों को दुरूस्त कैसे रखें? उसके एक मित्र स्टैन्टन ने व्यंग्य किया- तू वकील तो लगता ही नहीं, लगता है उज्जड देहाती - वकालत कैसे चलेगी? उसने कहा- 'चले या न चले क्या करूँ। मैं केवल पोशाक में ही विश्वास नहीं करता। विश्वास है एक बात में कि मैं झूठा मुकदमा नहीं लूँगा।'
गुरूनानक जी एकदिन एक साधारण बढ़ई लालो की गुरूभक्ति से प्रसन्न होकर उसके यहाँ ठहर गए। इसकी खबर उस इलाके के प्रमुख मलिक भागो के कानों तक पहुँची। तब समाज में ऊँच-नीच की भावना व्याप्त थी। भागो यह कैसे सहन करे कि एक संत एक बढ़ई के घर में निवास करें। उन्होंने तुरन्त अपने यहाँ भोजन करने के लिए आमन्त्रित किया। उस समय गुरू जी भजन गा रहे थे और उनका शिष्य मर्दाना रवाब बजा रहा था। उन्होंने मलिक भागो से कहा, 'मैं आपके यहाँ भोजन ग्रहण नहीं करूँगा।' भागो अपमान से जलने लगा। पूछा, 'आखिर क्यों? क्या मैं इससे भी नीच हूँ।'
गुरू जी ने कहा, 'ठीक है, अपनी खाद्य सामग्री दे दो।'
गुरू जी ने उसे अपने हाथों में लेकर निचोड़ा। अरे यह क्या? खून निकलने लगा।
उन्होंने लालो से अपना भोजन मँगवाया। वही रूखी सूखी रोटी और साग। उसे निचोड़ने लगे- दूध की धारा? गुरू जी ने कहा अब समझे तेरी कमाई पसीने की नहीं, शोषण की कमाई है। बेचारा मलिक भागो लज्जित हो गया।
मैक्समूलर की माँ की हार्दिक इच्छा थी कि उसका बेटा देश का कोई बड़ा अधिकारी बने। एक विधवा होते हुए भी उसने मैक्समूलर की पढ़ाई में कोई कमी नहीं की, लेकिन मैक्समूलर को तो दूसरी ही धुन थी। वह कहता, 'नहीं, माँ मुझे संस्कृत पढ़ना है, पढ़ने दो।' वे संस्कृत के अध्ययन में जुट गए। लिपजिग कॉलेज में अध्ययन के दौरान इन्हें यह आर्श्च हुआ कि अंग्रेजी के अनेक शब्द संस्कृत से निकले हैं यथा - डॉक्टर-दुहित्र से, फादर-पितर से, मदर-मातृ से, वाइफ-वधु से तथा ब्रदर-भ्रातर से। उन्हें गुरू की खोज में पेरिस जाना पड़ा। पेरिस में बर्नूफ को पाकर उन्हें अत्यनत प्रसन्नता हुई। जब इन्होंने वेद अध्ययन की इच्छा व्यक्त की, तो गुरू ने कहा - 'तुम में प्रतिभा है, लगन है, एकनिष्ठता है। तुम हिन्दू धर्म या वेद दोनों में से किसी एक को अपना जीवन अर्पित कर दो।'
मैक्समूलर ने वेद पढ़ने की जब इच्छा व्यक्त की तो गुरू ने दो हिदायतें दीं-
वेद का भाष्य करते समय तुम धूम्रपान नहीं करोगे। मूल और भाष्य का एक शब्द एक अक्षर भी नहीं छोड़ोगे नहीं। उन्होंने इन वचनों का दृढ़ता से पालन किया और अपने 27 वर्षों के कठोर श्रम से ऋग्वेद का उद्धार किया, जो ईस्ट इण्डिया कंपनी के संग्रहालय में कैद थे। हिन्दू धर्म के इस पवित्र ग्रन्थ के जीर्णोद्धार का श्रेय इन्हीं विद्वानों को जाता है, जिन्होंने अपने जीवन के लगभग पचास वर्ष भारतीय वांगमय में विचरते हुए बिताया।
एक राजा ने अपने मंत्री-परिषद के समक्ष तीन प्रश्न किए-
पहला - सबसे अच्छा मित्र कौन ?
दूसरा - सबसे अच्छा समय कौन ?
तीसरा - सबसे अच्छा काम कौन ?
प्रत्येक मंत्री ने उत्तर अलग-अलग सुझाए। किसी ने कहा ज्योतिषी द्वारा निर्धारित समय, कर्म तथा मित्र सर्वश्रेष्ठ है, किसी ने राजा के मित्र के रूप में मंत्री और सेनापति के नाम सुझाए। इन बातों से राजा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह जंगल की ओर चला, जहाँ एक ऋषि रहते थे। शाम के समय राजा अपने सिपाहियों सहित घोड़े पर सवार वन में पहुँचा। देखा ऋषि तो वहाँ नहीं, लेकिन एक कुटिया के बगल में एक बूढ़ा व्यक्ति अपना खेत कोड़ रहा है। वह अपने सिपाहियों को बाहर खड़ा रहने का आदेश देकर उस बूढ़े के निकट गया। ऋषि के बारे में पूछा-बूढ़े ने कहा यह नाम तो उसी का है। राजा ने तीनों प्रश्न ऋषि से किए। ऋषि बीज बो रहे थे, राजा से भी मदद करने को कहा। राजा बीज बोता रहा, लेकिन उसे अपने प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं मिला। जब अँधेरा घना हो गया, तो एक घायल के कराहने, चिल्लाने की आवाज सुनायी पड़ी। ऋषि ने राजा से कहा, चलें इसकी मदद करें। घायल व्यक्ति कराह रहा था। जब उसे होश आया तो वह राजा को देखते ही उसके चरणों में गिर पड़ा और क्षमा माँगने लगा।
राजा को आश्चर्य हुआ यह कौन मनुष्य है। वस्तुतः वह राजा को मारने आया था, लेकिन सिपाहियों ने उसे घायल कर दिया था। अब वह राजा से ही क्षमा याचना करने लगा।
राजा को अपने प्रश्नों का उत्तर अभी तक नहीं मिला था। उन्होंने ऋषि से पूछा - ऋषि ने कहा आपके प्रश्नों का उत्तर तो मिल गया। सबसे अच्छा मित्र आपके सामने वाला है। सबसे अच्छा समय वर्तमान और सबसे अच्छा कर्म उपस्थित कर्म है। यदि ऐसा न होता, तो यह व्यक्ति आपका मित्र कैसे हो जाता, जो आपकी हत्या करने आया था?
एक बार कि बात है। स्वामी विवेकानन्द भारत भ्रमण करते हुए खेतरी के राजा के पास गए। राजा ने उनका बहुत सम्मान किया। राजा को उन्होंने अत्यन्त प्रभावित किया। उनके सम्मान में एक भजन गायिका नर्तकी बुलायी गयी। जब उन्होंने नर्तकी को देखा इच्छा हुई, अब यहाँ से चलें। राजा ने साग्रह उन्हें बैठा लिया।
नर्तकी ने गाना शुरू किया, 'प्रभुजी अवगुन चित ना धरो' भाव था, 'हे नाथ! आप समदर्शी हैं, लोहा कसाई की कटार में है, वही मन्दिर के कलश में है। पारस इसमें भेद नहीं करता। वह दोनों को अपने स्पर्श से कुन्दन बना देता है। जल यमुना का हो या नाले का, दोनों जब गंगा में गिरते हैं, गंगा-जल हो जाते हैं।' हे नाथ फिर यह भेद क्यों? आप मुझे शरण में लीजिए।' यह सुनकर स्वामी जी की आँखों से अश्रुधरा बह चली। एक संन्यासी को सचमुच एक नर्तकी के द्वारा अट्ठैत वेदान्त की शिक्षा मिली।
यह प्रसंग स्वामीजी द्वारा शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में दिये गए विश्व प्रसिद्ध भाषण से जुड़ा हुआ है।
आज वह शुभ घड़ी आ पहुँची। स्वामी विवेकानन्द देश-विदेश के प्रतिनिधियों के साथ मंच पर विराजमान हैं। हर धर्म के प्रतिनिधि को कुछ मिनटों में अपना परिचय देना है। एक-एक कर प्रतिनिधि उठते हैं, अपना परिचय देते हैं, बैठ जाते हैं, विवेकानन्द भी उठे और प्रथम शब्द उनके मुख से निकला- 'प्रिय, अमरीका के भाइयो एवं बहनो!‘ जैसे ही ये शब्द इनके मुख से निकले सभाकक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। कुछ लोग खड़े होकर इनका अभिनन्दन करने लगे। तालियों का स्वर बढ़ता ही जा रहा था। इसका शाश्वत संदेश है- दूसरों को समझो, ग्रहण करो, दूसरों की भावनाओं का आदर करना सीखो। हिन्दू को न बौद्ध बनने की आवश्यकता है, न बौद्ध बौद्ध को ईसाई, सभी धर्म अपनी जगह ठीक हैं। एक-दूसरे को जानने समझने की आवश्यकता है' उन्होंने अन्तिम शब्द कहे,
“Upon the banner in every religion will soon be written instead of resistance- Help and not fight, assimilation and not destruction, harmony and peace and not dissension.”
'भाइयों और बहनों' का पावन सम्बोधन अमरीका वासियों की हृदय को छू गया। दूसरे दिन समस्त अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर स्वामी विवेकानन्द का ही चित्र छपा था।
रोमां रोलां (Romain Rolland) ने इसीलिए उद्घोष किया,
“He had a genius of arresting words and burning phrases hammered out white hot in the forge of his soul so that they trans pierced thousands.”
पोरबन्दर के एक पंडित ने कहा, 'स्वामी जी, यहाँ भारत में धर्म के अनेक पंडित हैं, यहाँ आपकी बात कौन सुनेगा?' आप विदेश जाएँ। स्वामी विवेकानन्द अमरीका गए। कुछ दिन भ्रमण करते उनकी जमा पूँजी चुक गयी। एक व्यक्ति ने उन्हें वोस्टन जाने का किराया दिया और विश्वधर्म सम्मेलन के एक सदस्य के नाम पत्र भी। वह भी राह में कहीं खो गया। ठण्ड के मारे उन्हें लकड़ी के बक्से में रात बितानी पड़ी। सुबह पैदल ही चल पड़े। थककर एक आलीशान भवन के नीचे बैठकर सोचने लगे अब क्या करूँ? पत्र भी खो गया। धर्म सम्मेलन में प्रवेश कैसे हो? अन्ततः ईश्वर ने उनकी बात सुन ली। उस महल से एक संभ्रात महिला स दिव्य मुख मण्डल वाले संन्यासी को एक टक देख रही थी। उसने इन्हें ऊपर बुलाया। यह श्रीमती एच. डब्ल्यू. हैल थी। उनकी पहुँच इस विश्व सम्मलेन के सदस्यों तक थी। बस! स्वामी जी को अनौपचारिक रूप से ही सही सम्मेलन में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो गया।
पिछली सदी के विख्यात लेखक तथा पत्रकार श्री सखाराम गदेड़स्कर एक बार अपने दो मित्रों के साथ स्वामी विवेकानंद जी से मिलने गए। बात करते समय विवेकानंद जी को मालूम चला कि उनमें से एक व्यक्ति पंजाब के निवासी है। उन दिनों पंजाब प्रांत में 1-2 वर्षों से बारिश नहीं हुई थी, भीषण अकाल पड़ा हुआ था। स्वामी जी ने अकाल-पीड़ितों के विषय में चिंता प्रकट की और पीड़ितों के लिए क्या-क्या राहत-कार्य किए जा रहे है, उस बारे में पूछताछ की। तदनन्तर वे शिक्षा तथा नैतिक एवं सामाजिक उन्नति के बारे में बातें करते रहे। स्वामी जी से विदा लेते समय उस पंजाबी गृहस्थ ने विनयपूर्वक कहा - "महाराज, मैं तो आपसे इस इच्छा से मिलने आया था कि आप धर्म-अध्यात्म के विषय में कुछ उत्कृष्ट बातें बताएंगे; लेकिन आप तो सूखा तथा शिक्षा जैसे सामान्य विषयों की ही बातें करते रहे।"
स्वामी जी कुछ पल के लिए बिल्कुल चुप रहे, फिर बड़े गंभीरता से बाले - "देखो भाई, जब तक मेरे भारत देश में कोई भी व्यक्ति भूखा है, तब तक उसके लिए अन्न की व्यवस्था करना, उसे अच्छी तरह संभालना, यही सबसे बड़ा धर्म एवं पूर्णय का कार्य है। इसके अलावा जो कुछ भी है, वह मिथ्या या ढकोसला है। जो लोग भूखे हो, जिनका पेट न भरा हो, उनके सम्मुख धर्म का उपदेश देना मात्र केवल दंभ है। पहले उनके लिए अन्न की व्यवस्था करने का प्रयत्न करना चाहिए।"
गेरुआ वस्त्र, सिर पर बड़ी पगड़ी, एक हाथ में डंडा और कांधे पर बड़ी चादर डाले, स्वामी विवेकानंद अमेरिका के शिकागो शहर की सड़कों से होते हुए कहीं जा रहे थे, तभी उनका यह पोशाक सड़क पर जा रहे अमेरिकी लोगों के लिए एक जिज्ञासा का वस्तु बन गई। उनके पीछे-पीछे चल रही एक औरत ने अपने साथी पुरूष से कहा - "जरा इन अजीब वेशभूषा वाले महाशय को तो देखो, कैसे अजीब से कपड़े पहन रखे हैं!"
विवेकानंद जी को पीछे चल रही महिला की बात समझते देर न लगी, वे समझ गये की ये अमेरिकी लोग उनके भारतीय पहनावे को तुच्छ नजर से देख रहे हैं। विवेकानंद जी रूके और पीछे मुड़कर उस महिला को बोले- "बहन! मेरे इस भारतीय पोशाक पर आश्चर्यचकित न हो। तुम्हारे इस देश में किसी व्यक्ति के पोशाक को ही उस व्यक्ति के सज्जन होने की कसौटी माना जाता है, परन्तु जिस देश से मैं यहां आया हूं, उस देश में किसी व्यक्ति के सज्जन होने का भाव उसके पोशाकों से नहीं बल्कि उसके चरित्र व आचरण से आता है।"
अंत में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत और छत्रपती शिवाजी महाराज के गुरू समर्थ रामदास जी के जीवन का एक प्रसंग -
एक बार समर्थ गुरू रामदास जी एक घर के द्वार पर खड़े होकर 'जय-जय श्री रघुवीर समर्थ' का उद्घोष किया। गृहिणी का अपने पति से कुछ देर पूर्व कुछ कहा-सुनी हुई थी, जिससे वह गुस्से में थी। बाहर आकर चिल्लाकर बोली - 'तुम लोगों को भीख मांगने के सिवा और कुछ दूसरा काम नहीं है? मुफ्त मिल जाता है, अतः चले आते हो। जाओ, कोई दूसरा घर ढूँढो, मेरे पास अभी कुछ नहीं है।'
श्री समर्थ हँकर बोले - 'माताजी! मैं खाली हाथ किसी द्वार से वापस नहीं जाता। कुछ न कुछ तो लूँगा ही।'
वह गृहिणी उस समय चूल्हा लीप रही थी। गुस्से में आकर उसने उसी लीपनेवाले कपड़े को उनकी तरफ फेंक दिया।
श्री समर्थ प्रसन्न हो वहाँ से निकले। उन्होंने उस कपड़े को पानी से साफ किया और बत्तियाँ बनायी और उसी से प्रभु श्रीराम की आरती करने लगे। इधर ज्यों-ज्यों उन बत्तियों से आरती होती त्यों-त्यों उसका दिल पसीजने लगा। उसे उनके अपमान करने का इतना रंज हुआ कि वह विक्षिप्त हो उनको खोजने के लिए दौड़ पड़ी। अंत में वे उसे उस देवालय में मिले जिसमें वे उन बत्तियों से आरती करते थे। वहाँ पहुंचकर उसने श्री समर्थ से क्षमा माँगी और बोली - 'महात्मन, व्यर्थ ही मैंने आप सरीखे महापुरुष का निरादर किया। मुझे क्षमा करें।'
श्री समर्थ बोले - माता! तुमने उचित ही भिक्षा दी थी। तुम्हारी भिक्षा के प्रताप से ही यह देवालय प्रज्जवलित हो उठा है। तुम्हारा दिया हुआ भोजन जल्द ही खत्म हो जाता।
हरिजन-प्रवास के समय एक बार गांधी जी का रुमाल काम की भीड़ में पिछले पड़ाव पर छूट गया। शायद किसी ने धोकर सुखा दिया था। चलते समय उसे उठाना भूल गया। गांधी जी को उसकी जरूरत पड़ी तो उन्होंने महादेव भाई को कहा, 'मेरा रुमाल लाओ!'
महादेव भाई ने कहा, 'अभी लाता हूं।'
लेकिन लाये तो तब जब कहीं हो! बहुत खोजा पर नहीं मिला। आखिर गांधी जी को इस बात की सूचना दी गयी। सुनकर कुछ क्षण वे मौन बैठे रहे, फिर पूछा, 'वह रुमाल कितने दिन और चल सकता था?'
महादेव भाई ने कहा, 'चार महीने तो चल ही जाती।' गांधी जी बोले, 'तो फिर मैं चार महीने बिना रुमाल के ही चलाऊँगा। जो भूल हो गयी है, उसका यही प्रायश्चित हो सकता है। इसके बाद ही दूसरा रुमाल लेंगे।'
महात्मा गांधी बच्चों से बेहद प्यार करते थे। वे उन्हें पत्र लिखा करते थे। एक बार उन्हें एक बैठक में जाना था। सभी नेता पहुँच चुके थे, लेकिन गांधी जी नहीं आए। नेता चिंतित हो उठे। गांधी जी तो समय के पक्के हैं-क्यों नहीं आए, कहीं बीमार तो नहीं पड़ गए। कुछ लोग दौड़ते हुए गांधीजी के पास पहुँचे। देखते हैं कि वे एक पुराने बक्से में हाथ डाले कुछ खोज रहे हैं। एक नेता ने कहा - बापू! हम तो घबरा गए थे, लेकिन आप यहाँ अभी क्या कर रहे हैं? गांधी जी ने कहा, ''अभी कुछ दिन पूर्व दक्षिण भारत के एक अछूत बच्चे ने बड़े प्रेम से मुझे अपनी पेंसिल दी थी, वही खोज रहा हूँ, उसी से आज लिखूँगा।'' नेता चकित हो गए।
महात्मा गांधी के बाल्य जीवन की एक घटना है। कक्षा में स्कूल इंस्पेक्टर जाँच के लिए आए। शिक्षक अंग्रेजी पढ़ा रहे थे। इंस्पेक्टर सभी छात्रों से एक-एक कर पूछते। मोहनदास से उन्होंने 'केटल' शब्द का हिज्जे लिखने को कहा। शिक्षक इशारा कर रहे थे, लेकिन इन्होंने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। इन्हें शिक्षक के इंगित पर लिखना असत्य का आचरण लगा। उन्हें जो आता था वही लिख दिया, जो गलत था। इंस्पेक्टर के जाने के बाद शिक्षक ने उन्हें डाँट लगाई, लेकिन इन्हें कोई अन्तर नहीं पड़ा। इन्हें शिक्षक का झूठा व्यवहार अच्छा नहीं लगा।
यह कहानी बहुत ही पुरानी है। उस समय महात्मा गौतम बुद्ध पुरे भारतवर्ष में घुम-घुम कर बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रसार कर रहे थे।
धर्म प्रचार के सिलसिले में वे अपने कुछ अनुयायीयों के साथ एक गाँव में घुम रहे थे। काफी देर तक भ्रमण करते रहने से उन्हें बहुत प्यास लग गई थी।
प्यास बढ़ता देख, उन्होंने एक शिष्य को पास के गाँव से पानी लाने के लिए कहा। शिष्य जब गाँव में पहुंचा तो उसने देखा की वहां एक छोटी सी नदी बह रही है जिसमें काफी लोग अपने वस्त्र साफ कर रहे थे और कई अपने गायों को नहला रहे थे। इस कारण नदी का पानी काफी गंदा हो गया था।
शिष्य को नदी के पानी का ये हाल देख लगा कि गुरूजी के लिए यह गंदा पानी ले जाना उचित नहीं होगा। इस तरह वह बिना पानी के ही वापस आ गया। लेकिन इधर गुरूजी का तो प्यास से गला सूखा जा रहा था। इसलिए पुनः उन्होंने पानी लाने के लिए दूसरे शिष्य को भेजा। इस बार वह शिष्य उनके लिए मटके में पानी भर कर लाया।
यह देख महात्मा बुद्ध थोड़ा आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने शिष्य से पूछा गाँव में बहने वाली नदी का पानी तो गंदा था फिर ये पानी कहां से लाये?
शिष्य बोला - 'हाँ गुरूजी, उस नदी का जल सही में बहुत गंदा था परंतु जब सभी अपना कार्य खत्म करके चले गये तब मैने कुछ देर वहां ठहर कर पानी में मिली मिट्टी के नदी के तल में बैठने का इंतजार किया। जब मिट्टी नीचे बैठ गई तो पानी साफ हो गया। वही पानी लाया हूं।'
महात्मा बुद्ध शिष्य का यह उत्तर सुनकर बहुत खुश हुए तथा अन्य शिष्यों को एक शिक्षा दी कि हमारा जीवन भी नदी के जल जैसा ही है। जीवन में अच्छे कर्म करते रहने से यह हमेशा शुद्ध बना रहता है परंतु अनेको बार जीवन में ऐसे भी क्षण आते है जब हमारा जीवन दुख और समस्याओं से घिर जाता है, ऐसी अवस्था में जीवन समान यह पानी भी गंदा लगने लगता है।
सीख: मित्रों, इसलिए हमें जीवन में दुःख और बुराईयों को देखकर अपना साहस नहीं खोना चाहिए और धैर्य रखना चाहिए गंदगी समान ये समस्याएँ स्वयं ही धीरे-धीरे खत्म हो जाती हैं।
एक समय की बात है, भगवान बुद्ध एक नगर में घुम रहे थे। उस नगर के आम नागरिकों के मन में बुद्ध के विरोधियों ने यह बात बैठा दी थी कि वह एक ढोंगी है और हमारे धर्म को भ्रष्ट कर रहा है। इस वजह से वहां के लोग उन्हें अपना दुश्मन मानते थे। जब नगर के लोगों ने बुद्ध को देखा तो उन्हें भला बुरा कहने लगे और बदुआएं देने लगे।
गौतम बुद्ध नगर के लोगों की उलाहने शांति से बिना बोलने सुनते रहे लेकिन जब नगर के लोग उन्हें बोलते-बोलते थक गए तो महात्मा बुद्ध बोले- 'क्षमा चाहता हूं! लेकिन अगर आप लोगों की बातें खत्म हो गयी है तो मैं यहां जाऊं।'
भगवान बुद्ध कि यह बात सुन वहां के लोग बड़े आर्श्चयचकित हुए। वही खड़ा एक आदमी बोला - 'ओ! भाई हम तुम्हारा गुणगान नहीं कर रहे है। हम तो तुम्हें गालियाँ दे रहे हैं। क्या इसका तुम पर कोई असर नहीं होता???'
बुद्ध बोले - आप सब मुझे चाहे जितनी गालियाँ दो मैं उन्हें लूगा ही नहीं। आपके गालियाँ देने से मुझपर कोई असर नहीं पड़ता जब तक कि मैं उन्हें स्वीकार नहीं करता।
बुद्ध आगे बोले - और जब मैं इन गालियाँ को लूंगा ही नहीं तो यह कहां रह जाएगी? निश्चित ही आपके पास।
सीख: मित्रों, बुद्ध के जीवन का यह छोटा सा प्रसंग हमारे जीवन में एक नया परिवर्तन ला सकता है क्योंकि बहुत से लोग अपने दुःखों का कारण दुसरों को मानते है। जो कि अच्छी बात नहीं है। ऐसा कर हम स्वयं के लिए गडढ़ा खोद रहे होते है। यह सब हम पर निर्भर है कि हम लोगों के negative बातों को कैसे लेते है। उन्हें स्वीकार कर रहे है या नकार रहे है।
एक समय की बात है भगवान गौतम बुद्ध एक गाँव में धर्म सभा को संबोधित कर रहे थे। लोग अपनी विभिन्न परेशानियों को लेकर उनके पास जाते और उसका हल लेकर खुशी-खुशी वहां से लौटते।
उसी गांव के सड़क के किनारे एक गरीब व्यक्ति बैठा रहता तथा महात्मा बुद्ध के उपदेश शिविर में आने जाने वाले लोगों को बड़े ध्यान से देखता। उसे बड़ा आश्चर्य होता कि लोग अंदर तो बड़े दुःखी चेहरें लेकर जाते है लेकिन जब वापस आते है तो बड़े खुश और प्रसन्न दिखाई देते है।
उस गरीब को लगा कि क्यों न वो भी अपनी समस्या को भगवान के समक्ष रखे? मन में यह विचार लिए वह भी महात्मा बुद्ध के पास पहुंचा। लोग पंक्तिबध खड़े होकर अपनी समस्या को बता रहे थे।
जब उसकी बारी आई तो उसने सबसे पहले महात्ममा बुद्ध को प्रणाम किया और फिर कहा - 'भगवान इस गाँव में लगभग सभी लोग खुश और समृध है। फिर मैं ही क्यो गरीब हूं?'
इस पर उन्होने मुस्कुराते हुए कहा - 'तुम गरीब और निर्धन इसलिए हो क्योंकि तुमने आज तक किसी को कुछ दिया ही नहीं।'
इस पर वह गरीब व्यक्ति बड़ा आर्श्चयचकित हुआ और बोला - 'भगवान, मेरे पास भला दूसरों को देने के लिए क्या होगा। मेरा तो स्वयं का गुजारा बहुत मुश्किल से हो पाता है। लोगों से भीख मांग कर अपना पेट भरता हूं।'
भगवान बुद्ध कुछ देर शांत रहे, फिर बोले- तुम बड़े अज्ञानी हो। औरो के साथ बाटने के लिए ईश्वर ने तुम्हे बहुत कुछ दिया है। मुस्कुराहट दी है जिससे तुम लोगों में आशा का संचार कर सकते हो। मुख दिया है ताकि लोगों से दो मीठे शब्द बोल सकते है, उनकी प्रशंसा कर सकते हो। दो हाथ दिये है लोगों की मदद कर सकते हो। ईश्वर ने जिसको ये तीन चीजें दी है वह कभी गरीब और निर्धन हो ही नहीं सकता। निर्धनता का विचार आदमी के मन में होता है, यह तो एक भ्रम है इसे निकाल दो।
कभी भी मन में निर्धनता का भाव उत्पन्न न होने दो गरीबी अपने आप दूर हो जाएगी। भगवान बुद्ध का संदेश सुनकर उस आदमी का चेहरा चमक उठा और उसने इस उपदेश को अपने जीवन में उतारा जिससे वह फिर कभी दुखी नहीं हुआ।
महात्मा बुद्ध के पास सेठ रतनचंद दर्शन को आए तो साथ में ढेरों साम्रगी उपहारस्वरूप लाए। वहाँ उपस्थित जन-समूह एक बार तो वाह-वाह कर उठा। सेठ रतनचंद का सिर तो गर्व से तना जा रहा था। बुद्ध के साथ वार्तालाप प्रारंभ हुआ तो सेठ ने बताया कि इस नगर के अधिसंख्य चिकित्सालयों, विद्यालयों और अनाथालयों का निर्माण मैंने ही कराया है। आप जिस सिंहासन पर बैठे हैं वह भी मैंने ही भेंट किया है, आदि-आदि। कई दान सेठजी ने गिनवा दिए। सेठ जी ने जब जाने की आज्ञा चाही तो बुद्ध बोले - "जो कुछ साथ लाए थे, सब यहाँ छोड़कर जाओ।"
सेठ जी चकित होकर बोले - 'प्रभु, मैंने तो सब कुछ आपके समक्ष अर्पित कर दिया है।'
बुद्ध बोले - "नहीं, तुम जिस अंहकार के साथ आए थे उसी के साथ वापस जा रहे हो। यह सांसारिक वस्तुएँ मेरे किसी काम की नहीं। अपना अहम यहाँ त्याग कर जाओ, वही मेरे लिए बड़ा उपहार होगा।"
महात्मा बुद्ध का यह कथन सुनकर सेठ जी उनके चरणों में नतमस्तक हो गए। भीतर समाया हुआ सारा अहंकार अश्रु बनकर बुद्ध के चरणों को धो रहा था।
भगवान बुद्ध एक पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठे हुए थे। हर भक्त की भेंट स्वीकार कर रहे थे। तभी एक वृद्धा आई। उसने काँपती आवाज में कहा - 'भगवन, मैं बहुत गरीब हूँ। मेरे पास आपको भेंट देने के लिए कुछ भी नहीं है। हाँ, आज एक आम मिला है। मैं इसे आधा खा चुकी थी, तभी पता चला कि तथागत आज दान ग्रहण करेंगे। अतः मैं यह आम आपके चरणों में भेंट करने आई हूँ। कृपा कर इसे स्वीकार करें।'
गौतम बुद्ध ने अपनी अंजुरी (पात्र) में वह आधा आम प्रेम और श्रद्धा से रख दिया, मानो कोई बड़ा रत्न हो। वृद्धा संतुष्ट भाव से लौट गई। वहाँ उपस्थित राजा यह देखकर चकित रह गया। उसे समझ नहीं आया कि भगवान बुद्ध वृद्धा का जूठा आम प्राप्त करने के लिए आसन छोड़कर नीचे तक, हाथ पसारकर क्यों आए? पूछा - 'भगवन, इस वृद्ध में और इसकी भेंट में क्या ऐसी विशेषता है?'
बुद्ध मुस्कराकर बोले - "राजन, इस वृद्धा ने अपनी सम्पूर्ण संचित पूंजी मुझे भेंट कर दी जबकि आप लोगों ने अपनी सम्पूर्ण सम्पति का केवल एक छोटा भाग ही मुझे भेंट किया है। दान के अहंकार में डूबे हुए बग्घी पर चढ़कर आए हो। वृद्धा के मुख पर कितनी करूणा और कितनी नम्रता थी। युगों-युगों के बाद ऐसा दान मिलता है।"
बनारस शहर में संत कबीर दास जी की प्रसिद्धी दूर-दूर तक थी और शहर के राजा बीर सिंह भी कबीर के विचारों के एक बड़े पैरोकारों में से एक थे। जब कभी भी कबीर उनके दरबार में आते थे तो आदर स्वरूप राजा उन्हें अपने सिंहासन पर बैठा स्वयं उनके चराणों में बैठ जाते।
एक दिन अचानक कबीर दास के मन में ख्याल आया कि क्यों न राजा की परीक्षा ली जाए कि क्या राजा बीर सिंह के मन में मेरे लिए सही में इतना आदर है या वे सिर्फ दिखावा कर रहे है?
फिर क्या था, उसके अगले ही दिन वे हाथों में दो रंगीन पानी की बोतले ले (जो दूर से देखने पर शराब लगता था) अपने दो अनुयायों, जिसमें एक तो वही का मोची था तथा दूसरी एक महिला, जो कि प्रारम्भ में एक वैश्या थी के साथ राम नाम जपते हुए निकल पड़े।
उनके इस कार्य से उनके विरोधियों को उनके ऊपर ऊँगली उठाने का अवसर मिल गया। पूरे बनारस शहर में उनका विरोध हाने लगा जिससे धीरे-धीरे यह बात राजा के कानों तक पहुँच गई।
कुछ समय पश्चात संत कबीर दास राजा के पास पहुँचे; कबीर दास के इस व्यवहार से वे बड़ा दुःखी थे। तथा जब इस बार वे दरबार में आए तो राजा अपनी गद्दी से नहीं उठे।
यह देख, कबीर दास जल्द ही समझ गए कि राजा बिर सिंह भी आम लोगों की तरह ही हैं; उन्होंने तुरंत रंगीन पानी से भरी दोनों बोतलों को नीचे पटक दिया।
उनको ऐसा करते देख राजा बिर सिंह सोचने लगे कि, 'कोई भी शराबी इस तरह शराब की बोतले नहीं तोड़ सकता, ज़रूर उन बोतलों में शराब के बदले कुछ और था?' राजा तुरंत अपनी गद्दी से उठे और कबीर दास जी के साथ आए मोची को किनारे कर उससे पुछा, 'ये सब क्या है?'
मोची ने बोला, 'महाराज, क्या आपको पता नहीं, जगन्नाथ मंदिर में आग लगी हुई है और संत कबीर दास इन बोतलों में भरे पानी से वो आग बुझा रहे हैं.... ' राजा ने आग लगने की घटना का दिन और समय स्मरण कर लिया और कुछ दिन बाद इस घटना कि सच्चाई जाननें के लिए एक दूत को जगन्नाथ मंदिर भेजा।
जगन्नाथ मंदिर के आस-पास के लोगों से पूछने के बाद इस घटना कि पुष्टि हो गई कि उसी दिन और समय पर मंदिर में आग लगी थी, जिसे बुझा दिया गया था। जब बिर सिंह को इस घटना की सच्चाई का पता चला तो उन्हें अपने व्यवहार पर ग्लानी हुई और संत कबीर दास जी में उनका विश्वास और भी दृढ़ हो गया।
एक बार एक आदमी संत कबीरदास के यहां धार्मिक चर्चा के लिये गया। वह आदमी अपने वैवाहिक और गृहस्थ जीवन से संतुष्ट नहीं था। कबीरदास को प्रणाम करने के बाद उसने पूछा - भगवन्! एक सुखपूर्ण वैवाहिक जीवन का मर्म या रहस्य क्या है?
कबीरदास उस आदमी का बुझा हुआ चेहरा देखकर भांप गये कि उसकी अपनी पत्नी से बनती नहीं। कबीरदास यह बोल कर कि - "अभी आकर तुम्हें समझाता हूं" अपने कमरे के अंदर चले गये।
कुछ समय बाद वे अपने कमरे से सूत लेकर आये और उस आदमी के आगे आराम से बैठकर सूत सुलझाने लगे। 2-3 मिनट पश्चात अपनी धर्मपत्नी को आवाज लगाकर कहा इस जगह बिल्कुल अंधेरा है, इस अंधेरे में सूत नहीं सुलझा पर रहा, एक दिया तो जला कर रख जाओ। कबीरदास की पत्नी जल्द ही दिया जलाकर लाई और बिना कुछ बोले उनके पास रखकर चली गई।
उस आदमी को बड़ा अजीब लगा कि क्या कबीरदास अंधे हो चले है, जो दिन के वक्त सूरज के प्रकाश में भी उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता; और तो और इनकी धर्मपत्नी भी कैसी है जो बिना कोई खंडन किये जलता हुआ दिया रख कर चली गई।
अभी वह आदमी यह सब सोच ही रहा था कि कबीरदास की पत्नी दो गिलासों में दूध भर कर लाई, एक गिलास उस आदमी के पास रख दिया और दूसरा कबीरदास के हाथ में दे दिया। दोनों आराम से दूध पीने लगे। कुछ समय बाद कबीरदास की पत्नी पुनः आई और उनसे पूछने लगी दूध में चीनी की मात्रा कम तो नहीं है। कबीरदास ने कहा बिल्कुल नहीं, बहुत ज्यादा मीठा है। उस आदमी को फिर अजीब लगा कि यह दूध तो बिल्कुल नमकीन है, गलती से मीठे की जगह नमक पड़ गया है।
वह व्यक्ति क्रोध में खीजकर बोला - भगवन्! मेरे सवाल का जवाब नहीं दे सके तो मैं यहां से प्रस्थान करूँ? कबीरदास बोले - महाराज! इतने अच्छे से तो समझा दिया और क्या समझना चाहते हो? विस्तृत रूप से जानना चाहते हो, तो सुनो - "किसी भी परिवार के लिए जरूरी है कि परिवार के सदस्यों को अपने अनुकूल बनाओ तथा खुद भी परिवार के लोगों के लिए अनुकूल बनो। धर्मपत्नी और संतान को उत्तम स्वभाव वाला और आज्ञा का पालन करने वाला बना सको, तभी गृहस्थ और वैवाहिक जीवन पूरी तरह सफल हो सकता है।"
वह आदमी कबीरदास की बात का मर्म समझ गया और शांति से अपने घर की ओर चल दिया।
एक बार श्री समर्थ रामदास जी सतारा जाने के क्रम में बीच में देहेगाँव में रूके। साथ में उनके शिष्य दत्तूबुवा भी थे। श्री समर्थ को उस समय भूख लगी। दत्तूबुवा ने कहा - 'आप यहीं बैठें, मैं कुछ खाने की व्यवस्था कर लाता हूँ।' रास्ते में उन्होंने सोचा कि लौटने में देर हो सकती है, इसलिए क्यों न पास खेत में लगे कुछ भुट्टे को ही उखाड़ लूँ। उन्होंने खेत में से चार भुट्टों को ही उखाड़ लिया।
जब उन्होंने भुट्टों को भूँजना शुरू किया तो धुँआ निकलते देख खेत का मालिक वहाँ आ पहुँचा। भुट्टे चुराये देख उसे गुस्सा आया और उसने हाथ के डंडे से रामदास को मारना शुरू किया। दत्तूबुवा न उसे रोकने की कोशिश की पर श्री समर्थ ने उसे वैसा करने से इंकार कर दिया। दत्तूबुआ को पश्चाताप हुआ कि उनके कारण ही श्री समर्थ को मार खानी पड़ी।
दूसरे दिन वे लोग सतारा पहुंचे। श्री समर्थ के माथे पर बंधी पट्टी को देखकर शिवाजी ने उनसे इस संबंध में पूछा तो उन्होंने उस खेत के मालिक को बुलवाने को कहा। खेत का मालिक वहां उपस्थित हुआ। उसे जब मालूम हुआ कि जिसे उसने कल मारा था वे तो शिवाजी के गुरू हैं तब उसके तो होश ही उड़ गये।
शिवाजी श्री समर्थ से बोले - 'महाराज! बताये, इसे कौन-सा दंड दूं।' खेत का मालिक स्वामी के चरणों में गिर पड़ा और उसने उनसे क्षमा माँगी। श्री समर्थ बोले - 'शिवा, इसने कोई गलत काम नहीं किया है। इसने एक तरफ से हमारे मन की परीक्षा ही ली है। इसके मारने से मुझे यह तो पता चल गया कि कहीं मुझे यह अहंकार तो नहीं हो गया कि मैं एक राजा का गुरु हूँ, जिससे मुझे कोई मार नहीं सकता। अतः इसे सजा के बदले कोई कीमती वस्त्र देकर इसे ससम्मान विदा करो। इसका यही दण्ड है।'
फाँसी के मात्र दो दिन पूर्व की बात है। राम प्रसाद बिस्मिल की माँ अपने लाड़ले के अन्तिम दर्शन के लिए जेल आयी हैं। सहसा माँ को देखकर बिस्मिल की आँखों में आँसू आ गए। मानस में अतीत की अनेक सुखद स्मृतियाँ साकार होने लगीं। फिर पुत्र की आँखों में झर-झर आँसू टपक पड़े। माँ ने देखा और बोल उठी - "मैं तो समझती थी, तुमने अपने पर विजय पायी है, किन्तु यहाँ तो तुम्हारी कुछ और ही दशा है। जीवन-पर्यन्त देश के लिए आँसू बहाकर अब अन्तिम समय तुम मेरे लिए रोने बैठे हो? इस कायरता से अब क्या होगा? तुम्हें वीर की भांति हँसते हुए प्राण देते देखकर मैं अपने आप को धन्य समझूँगी। मुझे गर्व है कि इस गए-बीते जमाने में मेरा पुत्र देश के लिए स्वयं को बलिवेदी पर न्यौछावर कर रहा है। मेरा काम तुम्हें पालकर बड़ा करना था, उसके बाद तुम देश की चीज थे और उसी के काम आ गए। मुझे तनिक भी दुःख नहीं।"
अपने आँसुओं पर अंकुश लगाते हुए बिस्मिल ने कहा- "माँ! तुम तो मेरे दिल को भली-भाँति जानती हो। मुझे अपनी मृत्यु पर तनिक भी दुःख नहीं है। आपको मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं अपनी मृत्यु पर बहुत सन्तुष्ट हूं और फाँसी के तख्ते की ओर जाते हुए उन्होंने यह शब्द कहे-
''मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे।
बकी न मैं रहुँ न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान, रंगों में लहू रहे।
तेरा ही जिक्र या तेरी जुस्तजू रहे।।"
फिर-'वंदे मातरम्, भारत माता की जय' के बाद -
'विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि परसुव यदभद्रं तं न असुव' का उच्चारण करते-करते फाँसी पर झूल गए।
भगतसिंह को फाँसी की सजा हुई है। फाँसी से एकदिन पहले प्राणनाथ मेहता ने उन्हें एक पुस्तक दी 'लेनिन की जीवनी'। पुस्तक पढ़ने में वे इस तरह तल्लीन हो गए कि सुधि नहीं रही कि उन्हें आज फाँसी लगनी है। जल्लाद उन्हें लेने जेल की कोठरी में आ गए। अभी एक पृष्ठ पढ़ना शेष रह गया था। उनकी दृष्टि पुस्तक के उसी आखिरी पृष्ठ पर थी कि जल्लाद ने चलने को कहा। भगतसिंह हाथ उठाकर बाले, 'ठहरो, एक बड़े क्रान्किारी की दूसरी बड़े क्रान्किारी से मुलकात हो रही है।' जल्लाद वहीं ठिठक गए। भगतसिंह ने पुस्तक समाप्त की, उसे सोल्लास छत की ओर उछाला फिर दोनों हाथों से थामकर फर्श पर रखा और कहा, चलो' और वे मसत भरे कदमों से फाँसी के तख्त की ओर बढ़ने लगे। उनके दृढ़ कदमों को जल्लाद निहारते रहे।
23 मार्च, 1931 की संध्या। सात बज रहे हैं। फाँसी के तख्त की ओर तीन नवयुवक बढ़ रहे हैं। फाँसी की काली वर्दी पहना दी गयी है। बीच में भगतसिंह चल रहे हैं, सुखदेव उनकी बायीं ओर और राजगुरू दायीं ओर चल रहे हैं। भगतसिंह ने अपनी दाई भुजा राजगुरू की बाई भुजा में तथा बाई भुजा सुखदेव की दाई भुजा में डाल दी। तीनों ने नारे लगाए-इन्कलाब जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद। फिर गीत गाए-
'दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उलफत
मेरी मिट्टी से भी खुश्बू-ए-वतन आएगी।'
और देखते-देखते फाँसी पर झूल गए।
यह प्रसंग उस समय का है जब क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए संघर्षरत थे और अंग्रेजी शासन गिरफ्तार करने के लिए उनके पीछे लगा था।
एक भारी वर्षा वाली रात को अंग्रेजों से बचने के लिए चंद्रशेखकर आज़ाद ने एक अनजान घर का दरवाजा खटखटाया और बस एक रात के लिए शरण देने का आग्रह किया। उस घर में एक वृद्ध विधवा महिला अपनी बेटी के साथ रहती थी। शरीर से मजबूत हट्टे-कट्टे आज़ाद को चोर-डकैत जानकर पहले तो वृद्ध महिला ने उन्हें आश्रय देने से मना कर दिया परन्तु जब उन्होंने अपना पूरा परिचय उसे बताया तो महिला ने सम्मान के साथ घर में ठहरने की इजाजत दे दी।
थोड़ी देर बातचीत के बाद चंद्रशेखर आज़ाद को एहसास हुआ कि पैसे की तंगी के कारण इस बूढ़ी माँ की बेटी का विवाह नहीं हो पा रहा है। आज़ाद ने वृद्ध महिला से कहा - "मेरे सिर पर अंग्रेजी सरकार ने 5000 रुपए का इनाम रखा है, आप पुलिस तक मेरे यहां होने की सूचना पहुंचा कर 5000 रुपए का इनाम प्राप्त कर सकती है, इससे आपकी बेटी का रुका हुआ विवाह भी हो जायेगा।"
आज़ाद की यह बात सुनकर वृद्ध महिला के आँखों में आँसू आ गए और उसने आज़ाद से कहा - "भैया! तुम इस देश को गुलामी से मुक्त कराने के लिए अपना जीवन दाव पर लगाये फिरते हो और न जाने मेरी बेटी जैसी कितनी लड़कियों की आबरू तुम्हारे भरोसे है। मैं ऐसा विश्वासघात से भरा कार्य कभी नहीं करूंगी।" ऐसा कहते हुए वृद्ध महिला ने आज़ाद के एक हाथ में रक्षा-सूत्र बांधकर मरते दम तक इस देश की सेवा का वचन लिया।
जब सुबह वृद्ध महिला उठी तब तक आज़ाद घर छोड़ चुके थे और उन्होंने उसके तकिये के समीप 5000 रुपये एक कागज में लपेटकर रख दिये थे। जब महिला ने कागज से रुपये निकाले, तब उसने देखा कि उस कागज के अंदर लिखा था - अपनी प्यारी बहन की शादी के लिए एक छोटी सी भेंट- आज़ाद।
यह घटना उन दिनों की है जब चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव और बटुकेश्वर दत्त अंग्रेजों के विरुद्ध किसी योजना पर कार्य करने के लिए एक साथ इलाहाबाद में रह रहे थे। एक दिन की बात है, सुखदेव बाजार से एक कैलेंडर लेकर आये, जिस पर एक खूबसूरत अदाकारा की मनमोहक तस्वीर छपी हुई थी। सुखदेव को यह कैलेंडर पसंद आया और उन्होंने उसे कमरे के अंदर की दीवार पर टांग दिया और फिर किसी कार्य के लिए बाहर चले गये।
सुखदेव के जाने के पश्चात आज़ाद जी वहां पहुंचे और ज्यों ही उनकी नजर दीवार पर टंगे कैलेंडर पर गई त्यों ही उनकी भौहें तन गई। आज़ाद के क्रोध को देखकर अन्य क्रांतिकारी साथी थोड़ा डर गये; क्योंकि वे सभी आज़ाद जी के स्वभाव से अवगत थे। आज़ाद जी ने किसी से कुछ नहीं कहा लेकिन दीवार पर लगे कैलेंडर को तुरंत नीचे उतारा एवं फाड़कर फेंक दिया।
कुछ समय के पश्चात सुखदेव लौट आये। जब उनकी नजर दीवार पर गई, तो वहां कैलेंडर को टंगा न देख कर उसे वे इधर-उधर खोजने लगे। थोड़ी ही देर बाद जब उनकी नजर कैलेंडर के बचे हुये टुकड़ों पर पड़ी तब वे भी गुस्से से लाल-पीले हो गये। सुखदेव भी गरम स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्होंने गुस्से में सबसे पूछा की उनके कैलेंडर यह हाल किसने किया है?
आज़ाद जी ने कहा - "हमने किया है।"
सुखदेव थोड़ा हिचकिचाये लेकिन आज़ाद जी का सम्मान करते थे, इसलिए उनके सामने क्या बोलते सो धीरे से बोले कि तस्वीर तो अच्छी थी।
आज़ाद जी ने कहा - "यहां ऐसी ध्यान भटकाने वाली तस्वीर का क्या काम?"
उन्होंने आगे सुखदेव को समझा दिया कि हम जिस कार्य में लगे हुये है, ऐसी कोई भी तस्वीर या वस्तु हमारे इस कार्य से ध्यान भटका सकती है।
अपनी आत्मकथा में राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने एक घटना का वर्णन अपनी फाँसी के दो दिन पूर्व किया - 'मुझे कोतवाली लाया गया। चाहता तो गिरफ्तार नहीं होता। कोतवाली के दफ्तर में निगरानी में रखा सिपाही सो रहा था। मुंशी जी से पूछा- भावी आपति के लिए तैयार हो जाऊँ? मुंशी जी पैरों पड़ गए कि गिरफ्तार हो जाऊंगा, बाल-बच्चे भूखे मर जाएंगे। मुझे दया आ गयी। नहीं भागा।'
रात में शौचालय में प्रवेश कर गया था। इसके पूर्व बाहर तैनात सिपाही ने दूसरे सिपाही से कहा- 'रस्सी डाल दो। मुझे विश्वास है, भागेंगे नहीं।' मैंने दीवार पर पैर रखा और चढ़कर देखा कि सिपाही बाहर कुश्ती देखने में मस्त हैं। हाथ बढ़ाते ही दीवार के ऊपर और एक क्षण में बाहर हो जाता कि मुझे कौन पाता? किन्तु तुरन्त विचार आया आया कि जिस सिपाही ने विश्वास करके इतनी स्वतंत्रता दी, उसके संग विश्वासघात कैसे करूँ? क्यों भागकर उसे जेल डालूँ? क्या यह अच्छा होगा, उसके बाल-बच्चे क्या कहेंगे? जेल में भी भागने का विचार करके उठा था कि जेलर पं. चंपालाल की याद आयी जिनकी कृपा से सब प्रकार के आनन्द भोगने की जेल में स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। उनकी पेंशन में अब थोड़ा सा ही समय बाकी है और मैं जेल से भी नहीं भागा।'
ऐसी थी राम प्रसाद 'बिस्मिल' की विश्वसनीयता एवं संवेदना।
ब्रह्मपुर के पास एक गांव में मुन्ना सिंह बादशाह रहते थे। वे जो कहते थे, करते थे। थे तो गृहस्थ, लेकिन व्यवहार साधु की तरह था। फकीर का जीवन जीते थे। साधु सन्यासियों की सेवा करने में उन्हें गहरी दिल्चस्पी थी। वे संगीत के भी प्रेमी थे। उनकी दृष्टि में कोई बुरा नहीं था।
एक बार रानीसागर गाँव की एक वेश्या ने उन्हें संगीत और भजन सुनने के लिए आमन्त्रित किया। उन्होंने हाँ कह दी, लेकिन तभी वर्षा इनती हुई कि बाढ़ आ गयी। जाने का मार्ग जलप्लावित हो गया। लोगों ने कहा- 'बादशाह जी, छोड़िये एक वेश्या के यहां कहां जाइएगा? जाने का कोई मार्ग शेष नहीं। यदि नहीं भी जाइएगा तो क्या होगा? वेश्याएँ ऐसी ही होती हैं, उनके लिए आप चिंतित क्यों हैं।'
मुन्ना सिंह बादशाह ने किसी की नहीं सुनी और सारा कपड़ा एक हाथ लिये लंगोटा पहन पानी में कूद पड़े और उचित समय पर उस वेश्या के यहां पहुंच गये।
एक वेश्या के वचनों के प्रति भी इतने कृत संकल्प वे साधु थे। न तो उन्होंने लोकापवाद की कोई परवाह की और न तनिक अपने व्यक्तिगत कष्ट की।
घनश्याम दास बिड़ला मैट्रिक पास करने के बाद मुम्बई आये, जहां उनके परिवार की सोने-चांदी की दुकान थी। अभिभावक यही सोचते थे कि घनश्याम अपना खानदानी धन्धा सँभालेंगे, लेकिन उनकी रूचि कुछ अलग तरह के काम में थी तभी उन्होंने देखा कि कोलकाता से जूट मुम्बई में भेजा जाता है, जिसे व्यापारी यहाँ के बाजार में बेचते हैं। उन्होंने कोलकाता के व्यापारी से सम्पर्क किया।
व्यापारी ने इनके द्वारा भेजे कुछ रूपयों के एवज में पूरा सामान भेज दिया। एक सप्ताह बीत गया। व्यापारी को पैसा नहीं गया। वह घबराने लगा। इधर घनश्याम दास ने देखा जूट का दाम बढ़ने वाला है। उन्होंने माल नहीं बेचा। कुछ दिन प्रतीक्षा करने की सोची। तब तक कोलकाता के व्यापारी से सूचना आयी कि पैसा भेज दें। घनश्याम दास के पास पैसा आया नहीं था। फिर भी दूसरे से कर्ज लेकर भेज दिया। जब व्यापारी को यह ज्ञात हुआ कि माल अभी तक बिका नहीं, फिर भी घनश्याम दास ने पैसा भेज दिया, वह अभिभूत हो गया।
अब क्या कहना था? मात्र घनश्याम आदेश देते और सामान हाजिर। घनश्याम की विश्वसनीयता के गुण ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया।
धन्य थी उनकी संकल्प-शक्ति।
वीर सावरकर को अंग्रेजों के द्वारा दिया गया घोर कष्ट, भोगी गयी यातनाएँ, भोगलिप्सा के शिकार लोगों को लज्जित कर सही हैं। उन्हीं से अपने कष्टों का बयान सुनते हैं।
‘जब मैं विदेश को प्रस्थान कर रहा था, उस समय मुझे विदा करने को जो परिवार या मित्र उपस्थित थे, उनमें ज्येष्ठ बन्धु भी थे। उस समय मैंने उनके दर्शन किए थे। उसके बाद लम्बा अर्सा बीत जाने पर अब (अण्डमान) जेल में उनके दर्शन करने थे। मन में आया मिलने से उन्हें अत्यनत दुःख होगा। अतः मिलने की इच्छा छोड़ देनी चाहिए। मगर उसी क्षण विचार आया कि मिलना टालना तो दुःख से डरना होगा। दुःख रूपी गजराज जब पूरा का पूरा अन्दर समा ही गया, तो केवल उसकी पूँछ से क्या डर? वे अपनी आशाओं पर राख डालकर अत्यन्त करूणाजनक स्थिति में आज मुझे देख रहे थे। क्षण भर तो वे विमूढ़ बने रहे। उनके मूक दुःख का परिचायक केवल एक ही उद्गार उनके मुख से फूट निकला-
'तात्याँ, तुम यहाँ कैसे?' ये शब्द उनकी असहाय वेदनाओं के प्रतीक थे और मेरे हृदय में भाले की तरह बैठ गए।"
अब वीर सावरकर की अण्मान जेल की दिल दहलाने वाली आपबीती सुनें-
"सबेरे उठते ही लंगोटी पहनकर कमरे में बंद हो जाना तथा अन्दर कोल्हू का डण्डा हाथ से घुमाते रहना। कोल्हू में नारियल की गरी पड़ते ही वह इतना भारी चलता कि कसे हुए शरीर के बन्दी भी उसकी बीस फेरियाँ करते रोने लगते। बीस-बीस वर्ष तक की आयु के चोर-डाकुओं तक को इस भारी मशक्कत के काम से वंचित कर दिया जाता, किन्तु राजबन्दी, चाहे वह जिस आयु का हो, उसे यह कठिन और कष्टकर कार्य करने से अण्डमान का वैद्यक शास्त्र भी नहीं रोक पाता। कोल्हू के इस डण्डे को हाथों से उठाकर आधे रास्ते तक चला जाता और उसके बाद का अर्धबोला पूरा करने के लिए डण्डे पर लटकना पड़ता, क्योंकि हाथों में बल नहीं रहता था। तब कहीं कोल्हू की गोल दाँडी पूरा चक्कर काटती। कोल्हू में काम करते भीषण प्यास लगती। पानी वाला पानी देने से इनकार कर देता। जमादार कहता- 'कैदी को दो कटोरी पानी देने का हुक्म है और तुम तो तीन पी गए और पानी क्या तुम्हारे बाप के घर से लाएँ?'
लंगोटी पहनकर सवेरे दस बजे तक काम करना पड़ता, निरन्तर फिरते रहने से चक्कर आने लगते। शरीर बुरी तरह से थक कर चूर हो जाता, दुखने लगता। रात को जमीन पर लेटते ही नींद का आना तो दूर, बेचैनी में करवटें बदलते ही रात बीतती। दूसरे दिन सवेरे पही कोल्हू सामने खड़ा होता। उस कोल्हू को पेरते समय पसीने से तरह हुए शरीर पर जब धूल उड़कर उसे सान देती, बाहर से आते हुए कूड़े-कचरे की तह उस पर जम जाती, तब कुरूप बने उस नंग-धड़ंग शरीर को देखकर मन बार-बार विद्रोह कर उठता। ऐसा दुःख क्यों झेल रहे हो, जिससे स्वयं पर घृणा पैदा हो।
इस कार्य के लिए, मातृभूमि के उद्धार के लिए, कौड़ी का भी मूल्य नहीं है। वहाँ (भारत में) तुम्हारी यातनाओं का ज्ञान किसी को भी नहीं होगा। फिर उसका नैतिक परिणाम तो दूर की बात है। इसका न कार्य के लिए उपयोग है, न स्वयं के लिए। इतना ही नहीं भार, भूत बनकर रहने में क्या रखा है? फिर यह जीवन व्यर्थ में क्यों धारण करते हो? जो कुछ भी इसका उपयोग होना था, हो चुका। अब चलो फाँसी का एक ही झटका देकर जीवन का अन्त कर डालो।"
इस भयंकर अन्तर्द्वन्द्व एवं ग्लानि में भी वीर सावरकर अडिग-अडोल बने रहे।
वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे, जिन्हें राजद्रोह के आरोप में दो आजनम कारावास की सजा सुनायी गई। इन्होंने पहले लेखक की ख्याति '1857 का स्वातंन्न्य समर' लिखकर प्राप्त किया। इस ग्रन्थ का प्रचार भगतसिंह और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने किया। ये पहले साहसी बन्दी थे जिन्होंने इंगलैण्ड से भारत लाए जाते समय सामुद्रिक जहाज से कूदकर भागने का प्रयास किया। ये पहले लेखक थे, जिनके अधिकांश ग्रन्थ जब्त किए गए। इनकी इंगलैण्ड में लिखी कविताओं 'ओ शहीदो' और 'गुरू गोविन्द सिंह' को जब्त किया गया और स्कॉटलैण्ड के पुलिस अधिकारी ने कहा - ‘जिस कागज पर सावरकर लिखते हैं, वह जलकर राख क्यों नहीं हो जाता?'
उन्होंने पचास वर्ष के काले पानी की सजा साहस और धैर्य से स्वीकार करते हुए अधिकारी से कहा- 'क्या मुझे इस निर्णय की प्रति देखने को मिल सकती है?' अधिकारी ने कहा था, 'यह बात मेरे हाथ में नहीं है, फिर भी आपके लिए मुझसे जो कुछ बनेगा, अवश्य करूँगा। तथापि इतनी लम्बी सजा का समाचार, जो मुझ जैसे व्यक्ति को भी विदीर्ण करने वाला था, आपने जिस धैर्य से सुना, उसे देखकर मैं यह नहीं मानता कि आप किसी भी सहायता या सहानुभूति के पात्र होंगे।'
महान रसायनशास्त्री आचार्य नागार्जुन को एक ऐसे नवयुवक की तलाश थी जो उनकी प्रयोगशाला में उनके साथ मिलकर रसायन तैयार कर सके। उन्होंने विज्ञप्ति निकाली। दो नवयुवक उनसे मिलने आये। प्रथम नवयुवक को रसायन बनाकर लाने को कहा, फिर दूसरा युवक आया उसे भी यही आदेश दिया।
प्रथम नवयुवक दो दिन बाद रसायन लेकर आ गया। नागार्जुन ने पुछा- 'तुम्हें इस काम में कोई कष्ट तो नहीं हुआ?' युवक ने कहा- 'मान्यवर बहुत कष्ट उठाना पड़ा। पिता को उदर कष्ट था, माँ ज्वर से पीड़ित थीं। छोटा भाई पैर पीड़ा से परेशान था कि गाँव में आग लग गई, पर मैंने किसी पर भी कोई ध्यान नहीं दिया। एकनिष्ठ रसायन बनाने में तल्लीन रहा।' नागार्जुन ने ध्यान से सुना। कुछ भी नहीं कहा। युवक सोच रहा था मेरा चुनाव तो निश्चित ही है, क्योंकि अभी तक दूसरा युवक लौटा ही नहीं था।
इसी बीच दूसरा युवक उदास लौटा। नागार्जुन ने पूछा - 'क्यों क्या बात है? रसायन कहाँ गया?' दूसरे नवयुवक ने कहा - मुझे दो दिन का समय चाहिए। मैं रसायन बना ही न सका, क्योंकि जैसे ही बनाने जा रहा था कि एक बूढ़ा रोगी दिखायी पड़ा, जो बीमारी से कराह रहा था। मैं उसको अपने घर ले गया और सेवा करने लगा। अब वह ठीक हो गया, तो मुझे ध्यान आया कि मैंने रसायन तो बनाया ही नहीं। इसीलिए क्षमा याचना के लिए चला आया। कृप्या दो दिन का समय दीजिए।
नागार्जुन मुस्कराये और कहा- 'कल से तुम काम पर आ जाना'। पहला युवक सोच ही नहीं पा रहा था कि उसे क्यों नहीं चुना गया। नागार्जुन ने पहले युवक से कहा-'तुम जाओ तुम्हारे लिए मेरे पास स्थान नहीं है, क्योंकि तुम काम तो कर सकते हो, लेकिन यह नहीं जान सकते कि काम के पीछे उद्देश्य क्या है?' वस्तुतः रसायन का काम रोग निवारण है, जिसमें रोगी के प्रति संवेदना नहीं उसका रसायन कारगर नहीं हो सकता। पहला युवक निराश लौट गया।
आधुनिक भौतिकी के बुनियादी सिद्धांत 'सापेक्षिकता' पर कार्य करने के दौरान अल्बर्ट आइंस्टीन को अमेरिका के बड़े-बड़े महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में कई बार व्याख्यान देने जाना पड़ता था। वे वहां कार से जाते थे; लेकिन क्योंकि आइंस्टीन ने कभी गाड़ी चलाना सिखा नहीं था, इसलिए अपनी कार के लिए उन्होंने एक ड्राइवर रख रखा था। आइंस्टीन का ड्राइवर उनके साथ जहां जाता उनका व्याख्यान जरुर ध्यान से सुनता। रोज-रोज उनका एक ही तरह का व्याख्यान सुनते-सुनते उसे वे अच्छी तरह याद हो गया था।
एक दिन पहले की तरह आइंस्टीन किसी विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने जा रहे थे। तभी थोड़े मजाकिया भाव में उनके ड्राइवर ने कहा, 'सर आप जो भी व्याख्यान देते हैं, वे तो इतने सरल होते हैं कि कोई भी एक बार सुनकर उसे स्वयं दे सकता है।'
संयोग से उस दिन अल्बर्ट आइंस्टीन एक ऐसे विश्वविद्यालय में जा रहे थे, जहाँ के प्रोफेसर और छात्र उनका नाम तो जानते थे लेकिन उन्हें कभी सामने से देखा नहीं था। इस बात का फायदा उठाते हुए आइंस्टीन ने अपने ड्राइवर से कहा - 'यदि तुम्हें मेरी तरह भौतिक विज्ञान के इस विषय पर व्याख्यान देना आसान लगता है तो आज मैं ड्राइवर बन जाता हूं और तुम मेरी जगह व्याख्यान दो।'
ड्राइवर को आइंस्टीन की इस बात पर थोड़ा अचरज हुआ, लेकिन फिर भी उसने इसके के लिए हाँ कह दिया। दोनों ने अपने कपड़ों की अदला-बदली की और विश्वविद्यालय पहुंचे। विश्वविद्यालय पहुंचकर दोनों गाड़ी से बाहर निकले और ड्राइवर ने मंच पर जाकर व्याख्यान देना चालू कर दिया। उसने बिना पढ़े हुये पूरा व्याख्यान दे दिया।
हॉल में उपस्थित बड़े-बड़े प्रोफेसरों को भी यह आभास नहीं हुआ कि मंच पर व्याख्यान दे रहा व्यक्ति आइंस्टीन नहीं बल्कि कोई और है।
व्याख्यान समाप्त होने के पश्चात एक प्रोफेसर ने आइंस्टीन बने ड्राइवर से एक प्रश्न पूछा तो उसने बड़ी चतुराई से कहा, 'भौतिकी का यह प्रश्न तो इतना आसान है कि इसका उत्तर तो मेरा ड्राइवर भी दे देगा।'
इसके बाद प्रोफेसरों के सभी सवालों के जवाब ड्राइवर के कपड़े पहने बैठे अल्बर्ट आइंस्टीन ने दिये। जब अंत में सवाल-जवाब का क्रम समाप्त हुआ और लौटने का वक्त आया, तब आइंस्टीन ने सभी को यह बताया कि आज यहां व्याख्यान देने वाला उनके कार का ड्राइवर था। ये बात सुनकर सभी के होश उड़ गये।
भौतिकी के जिस सिद्धांत को बड़े-बड़े वैज्ञानिक सरलता से नहीं समझ पाते उसे दुनिया के एक महान वैज्ञानिक के साथ रहने वाले एक ड्राइवर से इतनी आसानी से समझा दिया था।
एक बार अल्बर्ट आइंस्टीन परमाणु शक्ति के विनाश कार्यों में उपयोग के दुष्परिणामों से चिंतित हो उठे। उन्होंने भारी परिश्रम करके परमाण्विक खोजें की। इससे प्रभावित होकर दार्शनिक रोमां रोलां उनसे भेंट करने आए। रोमां रोलां ने आइंस्टीन से प्रश्न किया, 'आपको परमाणु शक्ति को संहार की जगह निर्माण में उपयोग करने की प्रेरणा कैसे मिली?'
अल्बर्ट आइंस्टीन ने उत्तर दिया, 'मैंने धर्म पुस्तकों में पढ़ा था कि जो व्यक्ति किसी को जीवन नहीं दे सकता है, उसे किसी का जीवन लेने का अधिकार नहीं है। मैंने जब देखा कि वैज्ञानिकों ने परमाणु आयुधों से क्षणभर में असंख्य लोगों का संहार कर देने की घातक खोज कर ली है तो मैं बेचैन हो उठा। धर्मग्रंथ में पढ़े वाक्य ने मुझे संहार व विनाश की जगह परमाणु शक्ति के मानव कल्याण में उपयोग की खोज की प्रेरणा ने दी। उसी मानवीय प्रेरणा ने मुझे सफलता की मंजिल तक पहुंचाया।' रोमां रोलां एक महान वैज्ञानिक के हृदय की करुण भावना के सामने नतमस्तक हो उठे।
विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के खोजकर्ता माइकल फैराडे के जीवन से जुड़ी एक बड़ी ही रोचक घटना है। जब माइकल फैराडे ने विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की खोज कर ली तब उन्होंने इससे जुड़ा एक सार्वजनिक प्रयोग प्रस्तुत करने का निर्णय लिया। उनके इस नये प्रयोग को देखने के लिए इंग्लैंड के सभी हिस्सों से बहुत से लोग आये। उस प्रदर्शनी में एक महिला भी अपने बच्चे के साथ बहुत दूर से आई थी।
माइकल फैराडे ने मंच के ऊपर खड़े होकर अपना प्रयोग प्रस्तुत किया। उन्होंने तांबे के तारों से बना एक काॅयल लिया और उसके दोनों सिरों को एक गैल्वेनोमीटर से जोड़ दिया। फिर उस काॅयल में तेजी से एक बार मैग्नेट को प्रवेश करवाया। काॅयल में बार मैग्नेट के प्रवेश करने से गैल्वेनोमीटर की सुई हल्की सी आगे बढ़ी मतलब काॅयल में मैग्नेट के गति से विद्युत पैदा हुआ। फैराडे ने दर्शकों को समझाया कि इस तरह हम विद्युत पैदा कर सकते हैं।
प्रयोग खत्म होते ही वह महिला नाराज होती हुई माइकल फैराडे के समीप आई और बोलने लगी कि यह भी कोई वैज्ञानिक प्रयोग है! क्या तुमने पूरे इंग्लैंड से लोगों को यहां मूर्ख बनाने के लिए बुलाया था। तब फैराडे ने बहुत ही शालीनता से कहा - 'मैडम! जिस तरह आपका यह बच्चा अभी छोटा है, वैसे ही मेरा यह प्रयोग भी अभी बहुत छोटा या यू कहे बहुत शुरुआती दौर में है। हो सकता है भविष्य में यह प्रयोग विज्ञान जगत में अति महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो।'
इसमें कोई संदेह नहीं कि माइकल फैराडे के वे शब्द आज सच हो गये हैं। आज दुनिया भर में विद्युत उत्पन्न करने वाले जनरेटर, ट्रांसफार्मर और न जाने कितने ही विद्युत उपकरण फैराडे द्वारा खोजे गये विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धांत पर ही कार्य करते हैं। यदि उन्होंने इस सिद्धांत की खोज न की होती तो शायद आज हमें बिजली न मिल पाती।
फोर्ड मोर्टस कंपनी के संस्थापक हेनरी फ़ोर्ड के विषय में तो आप जानते ही होगें। वे अमेरीका के सबसे बड़े उद्योगपति थे तथा उन्हें अमेरिका के सबसे प्रभावशाली लोगों में गिना जाता है, लेकिन क्या आप जानते है कि उनकी पहली दो मोटर कंपनियाँ शुरू होने के कुछ ही महिनों बाद बंद हो गई थी। अगर कोई और होता तो वह निराश हो टूट जाता। लेकिन फ़ोर्ड को ये असफलताएँ भी नई मोटर कंपनी 'फ़ोर्ड मोटरस' की शुरूआत करने से नहीं रोक पाई और विश्व में पहली बार असेंबली लाइन मैन्यूफैक्चरिंग का प्रयोग करके कार उत्पादन में क्रांति ला दी। वह विश्व में अपने समय के तीन सबसे प्रसिद्ध और धनी लोगों में से एक थे।
Harry Potter सीरीज की किताबों कि लेखिका जे.के. रॉलिंग को तो आप जानते ही होगें। क्या आप को पता है, उनकी लाईफ़ में एक ऐसा समय था जब वे कंगाल, डिप्रेस और तलाकशुदा थी। जब वह Harry Potter किताब लिख रही थी तब वे एक लोक-कल्याण संस्था में रहती थी! यही नहीं उनकी इस किताब को 12 प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित करने से मना कर दिया था। आज वो विश्व में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली लेखिका के रूप में जानी जाती है। उनकी किताब Harry Potter जब प्रकाशित हुई तब उसने बुक सेलिंग के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये।
डिज़नी ने अपना पहला बिज़नेस अपने घर के गैरेज से शुरू किया था और उनकी सबसे पहली कार्टून बनाने वाली कंपनी दिवालिया हो गयी थी। उनके पहले प्रेस कान्फ्रेन्स में एक न्यूज़ पेपर के एडिटर ने उनका मजाक इसलिए उड़ाया था क्योंकि उनके पास फिल्म बनाने का कोई अच्छा आईडीआ नहीं था!
वॉल्ट डिज़नी अमेरीका एक फिल्म निर्माता, डाइरेक्टर, पटकथा लेखक और ऐनमेटर थे। उन्होंने दुनिया की सबसे जानी-मानी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी “The Walt Disney Company” की स्थापना कि थी, जिसकी आज वार्षिक आय 30 अरब डॉलर से भी ज्यादा की है।
जब आइंस्टीन युवा थे तो उनके माता-पिता को लगता था कि वे मंद बुद्धी है। स्कूल में उनके मार्क्स इतने खराब थे कि एक टीचर ने उनको पढ़ाई छोड़ देने की सलाह देते हुए कहा था कि 'तुम कभी भी कुछ नहीं कर पाओगे। तुम मूल्यहीन हो!' यहाँ तक कि उन्होंने चार वर्ष कि उर्म में बोलना सिखा और सात वर्ष कि उर्म से पहले तो वे पढ़ भी नहीं पाते थे।
आज हम उनको बिसवी सदी के महानतम् वैज्ञानिकों में से एक मानते है। भौतिकशास्त्र (physics) के श्रेत्र में उनके योगदानों के लिए उन्हें 1921 में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया।
संभवतः असफलताओं से कभी निराश न होने तथा दृढ़ता न खोने वालों में सबसे बड़ा नाम अब्राहम लिंकन का है। गरीबी में जन्मे लिंकन ने जिंदगी भर कई मुसकिलों और असफलताओं का सामना किया।
वे कई बार हार मान सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, उन्होंने ऐसा नहीं किया इसलिए वे अमेरिका के इतिहास में सबसे महान राष्ट्रपति बन पाए।
उससे पहले उनकी असफलता का यह रिकार्ड था-
1. 1832 नौकरी खो दी
2. 1832 विधान सभा का चुनाव हार गए
3. 1833 बिज़नेस में फेल हो गए
4. 1835 उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई
5. 1834 विधान-सभा के लिए चुने गए
6. 1836 उनका nervous breakdown हो गया
7. 1838 Illinois House Speaker का चुनाव हार गए
8. 1843 कॉग्रेस के नामनेशन रेस में हार गए
9. 1849 भू-अधिकारी के लिए खारिज कर दिए गए
10. 1854 सीनेट का चुनाव हार गए
11. 1856 उप-राष्ट्रपति की रेस में पीछे रह गए
12. 1858 दोबारा उप-राष्ट्रपति का चुनाव हार गए
13. 1860 अमेरिका के राष्ट्रपति बने
इतनी असफलता के बावजूद भी वे कभी निराश नहीं हुए, बल्कि एक नये उमंग और समर्पण के साथ आगे बढ़ते रहे और अंत में अपना लक्ष्य प्राप्त कर ही लिया।
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